भगवत् कृपा हि केवलम् !

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Saturday, 18 October 2014

पर्यावरण संरक्षण: प्रकृति की रक्षा करना भी हमारा ही धर्म है...

मित्रो पिछले कुछ समय से दुनिया में पर्यावरण के विनाश को लेकर काफी चर्चा हो रही है। मानव की गतिविधियों के कारण पृथ्वी के वायुमंडल पर जो विषैले असर पड़ रहे हैं , उनसे राजनेता , वैज्ञानिक , धर्मगुरु और सामाजिक कार्यकर्ता भी चिंतित हैं। एक आम इंसान को भी इसका अहसास होने लगा कि मनुष्य ने प्रकृति को हर दृष्टिकोण से नुकसान पहुंचाया है। जंगलों की अंधाधुंध कटाई हो रही है , वाहनों से रोजाना हजारों - लाखों टन धुआं निकल रहा है जो हवा को प्रदूषित कर रहा है। कारखाने नदियों में जहरीला कचरा बहा रहे हैं तो कुछ बड़े राष्ट्र समुद्र में परमाणु परीक्षण करके उसे विषाक्त बना रहे हैं। मनुष्य के स्वार्थ का ही दुष्परिणाम है कि प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगा है। बढ़ते तापमान के कारण वातावरण पहले से अधिक गर्म हो गया है। इसके फलस्वरूप पहाड़ों पर जमी हुई बर्फ तेजी से पिघलने लगी है। पिघलती बर्फ का पानी समुद्र में पहुंचकर उसका जलस्तर बढ़ने लगा है। इसका नतीजा समुद्र के किनारे बसे शहरों को भुगतना पड़ रहा है। इनसे वहां रहने वाले हजारों - लाखों लोगों का जीवन प्रभावित हो रहा है। चूंकि प्रकृति मनुष्य की हर जरूरत को पूरा करती है , इसलिए यह जिम्मेदारी हरेक व्यक्ति की है कि वह प्रकृति की रक्षा के लिए अपनी ओर से भी कुछ प्रयास करे। पिछले कुछ वर्षों में विश्व पर्यावरण दिवस के मौको पर प्रकृति को बचाने के लिए कई समाधान भी सुझाए गए हैं। लेकिन ऐसे मौकों पर भी कोई ठोस काम करने का संकल्प लेने की बजाय घुमाफिरा कर एक ही बात को मुद्दा बनाने की कोशिश होती है कि आखिरकार पर्यावरण प्रदूषण के लिए जिम्मेदार कौन है ? महात्मा गांधी ने सही कहा है कि प्रकृति हर आदमी की जरूरतों को पूरा कर सकती है , लेकिन किसी एक आदमी का लोभ पूरा नहीं कर सकती। 

आज हर आदमी प्रकृति का नाश करने पर ही तुला हुआ है। शायद वह यह नहीं जानता कि इस तरह खुद उसका अस्तित्व ही खत्म हो सकता है। लग रहा है कि लोगों को वैज्ञानिकों , नेताओं और समाजशास्त्रियों की बात समझ में नहीं आ रही है। ऐसे में इसका क्या उपाय हो सकता है कि लोग पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझें ? शायद यह काम भी धर्म के जरिए संभव हो सकता है। परंतु अहम सवाल यह है कि धर्म इसमें कैसे मदद कर सकता है ? यदि लोगों को समझाया जाए कि प्रकृति की सार - संभाल करना भी एक धार्मिक कार्य है तो शायद यह काम आसान हो जाए। लोगों को समझाना होगा कि चूंकि यह सृष्टि ईश्वर की रचना है , इसलिए उसका आदर - समान करना और उसकी रक्षा से संबंधित आज्ञाओं का पालन करना ही धर्म है। अच्छी बात यह है कि दुनिया के सभी धर्म ईश्वर और सृष्टि का आदर करना सिखाते हैं। सभी धर्मों में माना गया है कि प्रकृति की रक्षा करना ही मनुष्य की रक्षा करना है। प्रकृति की रक्षा करना ही हमारा धर्म है। मानव और प्रकृति के बीच सदियों से घनिष्ठ संबंध रहा है। वह ईश्वर को इस विश्व का सृष्टिकर्ता मानता है। अलग - अलग नामों से उस ईश्वर को संबोधित कर उसकी पूजा - अर्चना भी करता है। कहते हैं कि इस तरह इंसान अपने धर्म का पालन कर रहा है। लेकिन धर्म के पालन का अर्थ केवल परस्पर मानवीय व्यवहार करना , सदाचार और शिष्टाचार के नियमों का पालन करना ही नहीं है। इसका अर्थ तो ईश्वर और सृष्टि के साथ शिष्टाचार निभाना भी है। ईश्वर की आराधना तभी पूरी मानी जाएगी , जब उसके द्वारा रची गई सुंदर सृष्टि व उसमें विचरने वाले सभी प्रकार के जीव - जंतुओं की रक्षा की जाएगी और उनका आदर किया जाएगा। इस तरह पूरे पर्यावरण में शांति छा जाएगी। ऐसी स्थिति में सृष्टिकर्ता की मौजूदगी को महसूस किया जा सकेगा और परमात्मा को पाया जा सकेगा। हमारे आसपास का पर्यावरण जितना स्वच्छ होगा , तन - मन की शांति में उतना ही सहायक होगा। सृष्टि का आदर करना ईश्वर का आदर करना ही है।

मित्रो पिछले काफी दिनों से मैं कुछ व्यक्तिगत कारणों और अति- व्यस्तताओ के चलते कोई पोस्ट नहीं कर पाया ...पर अब पूरी कोशिश रहेगी की बीच बीच में आप लोगो से रूबरू होता रहू ..धन्यवाद

आप क्या सोचते है ? आपके विचार आमंत्रित है ..

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