ओसामा बिन लादेन की मौत को आप क्या मानते हैं? जानलेवा आतंकी लड़ाई का अंत? नई जंग की शुरुआत? या, एक अनिवार्य मध्यान्तर? इंटरवल मानना ज्यादा समझदारी होगी। वजह? लादेन आतंकवाद का सबसे बड़ा चेहरा भले ही बन गया हो, पर उसका पर्याय नहीं था। उसके पहले भी आहत भावनाओं से उपजी दहशतगर्दी होती थी। आगे नहीं होगी, इसकी कोई गारंटी नहीं। आप याद कर सकते हैं। इजरायल के लिए यासर अराफात लंबे समय तक आतंकवादी थे, पर दुनिया के तमाम मुल्कों में अपने आदर्शो के लिए लड़ने वाले जंगजू। संभ्रांत लोग अपने बच्चों के नाम यासिर रखकर खुद को गौरवान्वित महसूस करते थे। दस बरस पहले कुछ देशों में ओसामा नाम रखने की लहर भी चली थी।
निजी तौर पर मैं अराफात और ओसामा को कभी एक पलड़े में नहीं रख सकता, पर यही ओसामा कभी अमेरिकी मीडिया का हीरो हुआ करता था। जब अमेरिकियों को अपना दामन जलता नजर आया, तो वे उसे हीरो से विलेन बनाने में जुट गए, पर वह लगातार ताकतवर होता गया। याद करें। 1993 में रमजी यूसुफ विस्फोटकों से भरा ट्रक लेकर न्यूयॉर्क के विश्व व्यापार केंद्र से जा टकराया था। तब तक अमेरिकियों को गुमान न था कि उनकी कुटिल योजनाओं से पनपा दानव भस्मासुर हो चला है। वाशिंगटन अपनी गलतियों को देखकर देर तक अनदेखा करता है। उसका यह गुरूर लादेन और उसके खूंख्वार अनुयायियों की मदद कर रहा था।
दिक्कत यहीं से खड़ी होनी शुरू हुई। हुक्मरानों की एक दुनिया ऐसी भी थी, जो अमेरिका से जलती थी और ओसामा से डरती थी। इसका फायदा उठाकर अल कायदा खुद को एक सुव्यवस्थित साम्राज्य के तौर पर विकसित कर रहा था। विश्व के नक्शे पर उसके टारगेट साफ थे। पूरी दुनिया से इस्लामी लड़ाके रंग, वर्ण और भाषाई भेद भुलाकर उसके सदस्य बन रहे थे। 2005 में दुनिया की गुप्तचर संस्थाएं एक तथ्य के खुलासे से सकते में आ गई थीं। वह था, एक दस्तावेज -‘अल कायदा की दृष्टि 2020।’
इसमें अमेरिका को उलझाने के लिए पांच लक्ष्य निर्धारित किए गए थे। पहला, उसे किसी मुस्लिम देश पर आक्रमण के लिए उकसाओ। दूसरा, स्थानीय लोगों को उनकी सेनाओं से लड़ने के लिए प्रेरित करो। तीसरा, इस संघर्ष को पड़ोसी देशों तक ले जाओ, ताकि अमेरिकी फौजें लंबे समय के लिए वहां फंस जाएं। चौथा, अल कायदा के आदर्शों (?) को उसके दोस्त देशों में मौजूद व्यवस्था विरोधियों को मित्र बनाने में इस्तेमाल करो। इससे वहां संघर्ष की शुरुआत होगी और उन देशों से अमेरिकी रिश्ते खराब होने लगेंगे। पांचवां, अमेरिका को इतने युद्धों में फंसा दो कि उसकी अर्थव्यवस्था चरामरा उठे।
तमाम तर्कों, वितर्कों और कुतर्कों के साए में उभरता एक सच यह भी था कि अल कायदा काफी कुछ सफल होता दिख रहा था। इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका उलझ चुका था। 1929 के बाद की सबसे भयावह मंदी उसके दरवाजे पर दस्तक दे रही थी। 2004 में मैड्रिड की ट्रेन में हुए विस्फोट ने उसी हफ्ते होने वाले चुनाव में उसकी पिट्ठू सरकार को उखाड़ फेंका था। समूची दुनिया वाशिंगटन डीसी की ओर सवालिया नजरों से देख रही थी। अपनी दूसरी पारी के आखिरी दौर में पहुंच रहे जॉर्ज बुश की लोकप्रियता हवा हो चुकी थी। वह अल कायदा का चरमोत्कर्ष था। उस समय उसके पास 40 देशों में हजारों से ज्यादा लड़ाके मौजूद थे। ओसामा का नाम सत्तानायकों की रीढ़ की हड्डी में झुरझुरी पैदा करने लगा था।
इधर, हर रोज ऊंचाइयां तय करता हुआ लादेन भूल गया कि चरम से ही पतन की शुरुआत होती है। 11 सितंबर 2001 को न्यूयॉर्क पर हमले के दौरान उसने भले ही तीन हजार लोगों को मारकर सारे संसार को दहशत में डाल दिया हो, पर यह भी सच है कि उसके प्रति नफरत पनपती जा रही थी। सबसे पहले पश्चिमी देश एक हुए, फिर उन्होंने समूचे संसार को अपने से जोड़ना शुरू किया। आम सहमति उभरने लगी कि कुछ भी कीजिए, पर आतंकवाद के इस अंतरराष्ट्रीय दानव को और कद्दावर होने से रोकिए।
अल कायदा मूलत: खुद को दो भागों में बांटकर अपना कारोबार चलाता था। पहला था- लड़ाकू दस्ता, जो प्रशिक्षण, हथियारों के जुगाड़ और हमलों की योजना बनाता था। दूसरा था- वित्त और व्यापार समिति। यह हवाला के जरिये अनधिकृत बैंकों में कभी भी करोड़ों डॉलर जमा करा सकती थी, निकाल सकती थी। सिर्फ मुस्लिम देशों से ही नहीं, बल्कि अमेरिका और यूरोप में कई संगठन उसके लिए धन जुटाने में जुटे हुए थे। 9/11 के बाद अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ योजनाबद्ध तरीके से अल कायदा और उसके हमराहों पर करारे वार करने शुरू किए। आतंक से थर्राती दुनिया ने उसे सहयोग दिया। उधर, व्हाइट हाउस में बराक ओबामा की आमद ने मुस्लिम देशों के अमनपसंद लोगों को राहत की सांस दी। ओसामा ‘जेहाद’ से कम, अमेरिकी विरोध से ज्यादा पनपा था। ओबामा इसे समझते थे। उन्होंने हुकूमत में आते ही मिस्र की यात्रा कर मुअज्जिज लोगों को आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में शरीक होने की दावत दी।
दुनिया के तमाम देश इस अभियान में साथ थे ही। उनका कारवां बढ़ने लगा और अल कायदा सिमटने लगा। 2006 में जहां उसके पास हजारों योद्धा थे, वहीं 2009 में इनकी संख्या घटकर 700-800 तक सीमित रह गई। खुद ओसामा छिपा-छिपा घूम रहा था। उसके धन के स्रोत सूख रहे थे। धमकियों के बावजूद उसके लोग अमेरिका, इंग्लैंड या इजरायल पर कोई बड़ा हमला करने में नाकाम रहे थे। इसीलिए जब अमेरिकियों ने पिछले दिनों उसे घेरकर मारा, तो फौरी तौर पर किसी बड़े प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा।
यहां एक सवाल सिर उठाता है। उस समय उसके साथ उसका कोई बड़ा कमांडर क्यों नहीं था? वह अकेला क्यों था? यही वह मुद्दा है, जो आशंका पैदा करता है। ओसामा की ‘शूरा’ के महत्वपूर्ण सदस्य जिंदा हैं। यकीनन, किसी रणनीति के तहत वे अलग-अलग रहते रहे होंगे, ताकि किसी एक या कुछ लोगों के मारे जाने के बाद भी जंग जारी रहे। लादेन जानता था। एक न एक दिन उसे मरना है। उसने अपने मरने के बाद इस लड़ाई को नया मुकाम देने के मोहरे और जरिये जरूर चुने होंगे। अल कायदा जल्दी से जल्दी जताना चाहता है कि उसका नेता मरा है, संगठन नहीं। धमकियां दी जा रही हैं। पाक में तो धमाके होने भी शुरू हो गए है , पाकिस्तान के ८० जवानों की मौत और फिर अरब और अमेरिकी दूतावास के वाहनों पे हमले उसी की कड़ी है। नेटो के टैंकर पे हमला , और कल ही कराची में नौसेना के पीएनएस मेहरान एयरबेस पे हुआ आतंकी कोहराम जो आज दोपहर तक चला .......आगे क्या होगा ??
कुछ सुखद उम्मीदें भी हैं। अल कायदा बिखर सकता है, अन्य गुट उस पर हावी हो सकते हैं और लादेन के बाद उसके कद का कोई आतंकवादी नहीं बचा। अबू निदाल के बाद लंबे समय तक शून्य रहा था। ओसामा ने मॉडर्न तरीके से उसे भरा और बढ़ाया था। यदि इसे ट्रेंड मान लें, तो रह बचे आतंकियों पर काबू पाने के बाद कुछ दिन चैन की उम्मीद की जा सकती है। पर यह आतंकवाद का मध्यांतर है, समापन नहीं।
दुनिया में ऐसे हालात अभी मौजूद हैं, जो लाखों लोगों के मन में नफरत पैदा करते हैं। हुक्मरानों को अब उन समस्याओं के तत्काल समाधान पर जोर देना होगा, जो लादेन जैसे लोगों को बनाती हैं। इनके हल होने तक हम खतरे में ही बने रहेंगे। यह सावधानी का वक्त है। भूलिए मत। हम हिन्दुस्तानी इस मामले में इजरायली, इंग्लिश अथवा अमेरिकियों के मुकाबले अधिक दुर्भाग्यशाली साबित होते रहे हैं।
आप क्या कहते है ?? आपके विचार आमंत्रित है - अजय
निजी तौर पर मैं अराफात और ओसामा को कभी एक पलड़े में नहीं रख सकता, पर यही ओसामा कभी अमेरिकी मीडिया का हीरो हुआ करता था। जब अमेरिकियों को अपना दामन जलता नजर आया, तो वे उसे हीरो से विलेन बनाने में जुट गए, पर वह लगातार ताकतवर होता गया। याद करें। 1993 में रमजी यूसुफ विस्फोटकों से भरा ट्रक लेकर न्यूयॉर्क के विश्व व्यापार केंद्र से जा टकराया था। तब तक अमेरिकियों को गुमान न था कि उनकी कुटिल योजनाओं से पनपा दानव भस्मासुर हो चला है। वाशिंगटन अपनी गलतियों को देखकर देर तक अनदेखा करता है। उसका यह गुरूर लादेन और उसके खूंख्वार अनुयायियों की मदद कर रहा था।
दिक्कत यहीं से खड़ी होनी शुरू हुई। हुक्मरानों की एक दुनिया ऐसी भी थी, जो अमेरिका से जलती थी और ओसामा से डरती थी। इसका फायदा उठाकर अल कायदा खुद को एक सुव्यवस्थित साम्राज्य के तौर पर विकसित कर रहा था। विश्व के नक्शे पर उसके टारगेट साफ थे। पूरी दुनिया से इस्लामी लड़ाके रंग, वर्ण और भाषाई भेद भुलाकर उसके सदस्य बन रहे थे। 2005 में दुनिया की गुप्तचर संस्थाएं एक तथ्य के खुलासे से सकते में आ गई थीं। वह था, एक दस्तावेज -‘अल कायदा की दृष्टि 2020।’
इसमें अमेरिका को उलझाने के लिए पांच लक्ष्य निर्धारित किए गए थे। पहला, उसे किसी मुस्लिम देश पर आक्रमण के लिए उकसाओ। दूसरा, स्थानीय लोगों को उनकी सेनाओं से लड़ने के लिए प्रेरित करो। तीसरा, इस संघर्ष को पड़ोसी देशों तक ले जाओ, ताकि अमेरिकी फौजें लंबे समय के लिए वहां फंस जाएं। चौथा, अल कायदा के आदर्शों (?) को उसके दोस्त देशों में मौजूद व्यवस्था विरोधियों को मित्र बनाने में इस्तेमाल करो। इससे वहां संघर्ष की शुरुआत होगी और उन देशों से अमेरिकी रिश्ते खराब होने लगेंगे। पांचवां, अमेरिका को इतने युद्धों में फंसा दो कि उसकी अर्थव्यवस्था चरामरा उठे।
तमाम तर्कों, वितर्कों और कुतर्कों के साए में उभरता एक सच यह भी था कि अल कायदा काफी कुछ सफल होता दिख रहा था। इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका उलझ चुका था। 1929 के बाद की सबसे भयावह मंदी उसके दरवाजे पर दस्तक दे रही थी। 2004 में मैड्रिड की ट्रेन में हुए विस्फोट ने उसी हफ्ते होने वाले चुनाव में उसकी पिट्ठू सरकार को उखाड़ फेंका था। समूची दुनिया वाशिंगटन डीसी की ओर सवालिया नजरों से देख रही थी। अपनी दूसरी पारी के आखिरी दौर में पहुंच रहे जॉर्ज बुश की लोकप्रियता हवा हो चुकी थी। वह अल कायदा का चरमोत्कर्ष था। उस समय उसके पास 40 देशों में हजारों से ज्यादा लड़ाके मौजूद थे। ओसामा का नाम सत्तानायकों की रीढ़ की हड्डी में झुरझुरी पैदा करने लगा था।
इधर, हर रोज ऊंचाइयां तय करता हुआ लादेन भूल गया कि चरम से ही पतन की शुरुआत होती है। 11 सितंबर 2001 को न्यूयॉर्क पर हमले के दौरान उसने भले ही तीन हजार लोगों को मारकर सारे संसार को दहशत में डाल दिया हो, पर यह भी सच है कि उसके प्रति नफरत पनपती जा रही थी। सबसे पहले पश्चिमी देश एक हुए, फिर उन्होंने समूचे संसार को अपने से जोड़ना शुरू किया। आम सहमति उभरने लगी कि कुछ भी कीजिए, पर आतंकवाद के इस अंतरराष्ट्रीय दानव को और कद्दावर होने से रोकिए।
अल कायदा मूलत: खुद को दो भागों में बांटकर अपना कारोबार चलाता था। पहला था- लड़ाकू दस्ता, जो प्रशिक्षण, हथियारों के जुगाड़ और हमलों की योजना बनाता था। दूसरा था- वित्त और व्यापार समिति। यह हवाला के जरिये अनधिकृत बैंकों में कभी भी करोड़ों डॉलर जमा करा सकती थी, निकाल सकती थी। सिर्फ मुस्लिम देशों से ही नहीं, बल्कि अमेरिका और यूरोप में कई संगठन उसके लिए धन जुटाने में जुटे हुए थे। 9/11 के बाद अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ योजनाबद्ध तरीके से अल कायदा और उसके हमराहों पर करारे वार करने शुरू किए। आतंक से थर्राती दुनिया ने उसे सहयोग दिया। उधर, व्हाइट हाउस में बराक ओबामा की आमद ने मुस्लिम देशों के अमनपसंद लोगों को राहत की सांस दी। ओसामा ‘जेहाद’ से कम, अमेरिकी विरोध से ज्यादा पनपा था। ओबामा इसे समझते थे। उन्होंने हुकूमत में आते ही मिस्र की यात्रा कर मुअज्जिज लोगों को आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में शरीक होने की दावत दी।
दुनिया के तमाम देश इस अभियान में साथ थे ही। उनका कारवां बढ़ने लगा और अल कायदा सिमटने लगा। 2006 में जहां उसके पास हजारों योद्धा थे, वहीं 2009 में इनकी संख्या घटकर 700-800 तक सीमित रह गई। खुद ओसामा छिपा-छिपा घूम रहा था। उसके धन के स्रोत सूख रहे थे। धमकियों के बावजूद उसके लोग अमेरिका, इंग्लैंड या इजरायल पर कोई बड़ा हमला करने में नाकाम रहे थे। इसीलिए जब अमेरिकियों ने पिछले दिनों उसे घेरकर मारा, तो फौरी तौर पर किसी बड़े प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा।
यहां एक सवाल सिर उठाता है। उस समय उसके साथ उसका कोई बड़ा कमांडर क्यों नहीं था? वह अकेला क्यों था? यही वह मुद्दा है, जो आशंका पैदा करता है। ओसामा की ‘शूरा’ के महत्वपूर्ण सदस्य जिंदा हैं। यकीनन, किसी रणनीति के तहत वे अलग-अलग रहते रहे होंगे, ताकि किसी एक या कुछ लोगों के मारे जाने के बाद भी जंग जारी रहे। लादेन जानता था। एक न एक दिन उसे मरना है। उसने अपने मरने के बाद इस लड़ाई को नया मुकाम देने के मोहरे और जरिये जरूर चुने होंगे। अल कायदा जल्दी से जल्दी जताना चाहता है कि उसका नेता मरा है, संगठन नहीं। धमकियां दी जा रही हैं। पाक में तो धमाके होने भी शुरू हो गए है , पाकिस्तान के ८० जवानों की मौत और फिर अरब और अमेरिकी दूतावास के वाहनों पे हमले उसी की कड़ी है। नेटो के टैंकर पे हमला , और कल ही कराची में नौसेना के पीएनएस मेहरान एयरबेस पे हुआ आतंकी कोहराम जो आज दोपहर तक चला .......आगे क्या होगा ??
कुछ सुखद उम्मीदें भी हैं। अल कायदा बिखर सकता है, अन्य गुट उस पर हावी हो सकते हैं और लादेन के बाद उसके कद का कोई आतंकवादी नहीं बचा। अबू निदाल के बाद लंबे समय तक शून्य रहा था। ओसामा ने मॉडर्न तरीके से उसे भरा और बढ़ाया था। यदि इसे ट्रेंड मान लें, तो रह बचे आतंकियों पर काबू पाने के बाद कुछ दिन चैन की उम्मीद की जा सकती है। पर यह आतंकवाद का मध्यांतर है, समापन नहीं।
दुनिया में ऐसे हालात अभी मौजूद हैं, जो लाखों लोगों के मन में नफरत पैदा करते हैं। हुक्मरानों को अब उन समस्याओं के तत्काल समाधान पर जोर देना होगा, जो लादेन जैसे लोगों को बनाती हैं। इनके हल होने तक हम खतरे में ही बने रहेंगे। यह सावधानी का वक्त है। भूलिए मत। हम हिन्दुस्तानी इस मामले में इजरायली, इंग्लिश अथवा अमेरिकियों के मुकाबले अधिक दुर्भाग्यशाली साबित होते रहे हैं।
आप क्या कहते है ?? आपके विचार आमंत्रित है - अजय
15 comments:
यह आतंकवाद का मध्यांतर है, समापन नहीं। आप क्या मानते है ??
बिलकुल सही ...यह आतंकवाद का मध्यांतर है अंत नहीं. आसुरी शक्तियां सदा रही हैं ...सदा रहेंगी. इन पौराणिक आख्यानों का उद्देश्य दुनिया को सदा सर्वदा सचेत रहने की हिदायत देना है. अजय जी ! आपने एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ तैयार कर दिया है ....इससे स्पष्ट है की आपको विश्व राजनीति में गहरी रूचि है. प्रभावशाली लेखन.
very good writing sir ji
कौशलेन्द्र जी प्रोत्साहन के लिए धन्यबाद ..... आपलोगों के वजह से ही कुछ भी लिखने का मन करता है . साथ ही मेरा मानना है की कुछ भी लिखने से पहले अच्छी पड़ताल जरूरी है . तभी मुझे लादेन के मारे जाने के बाद भी लिखने में कुछ समय लग गया .
एक बार फिर से आभार
fir bhi laden naam ka ek kameena to kam hua
achha to hua hi hai bhai
vinay tiwari
आपने एकदम सही कहा है....आतंकवाद ओसामा से पहले भी था और आगे भी जारी रहेगा, क्योंकि इस आतंकवाद की जड़ की तरफ किसी का ध्यान नहीं है, और विशेषकर अमेरिका तो इस जड़ को और पानी दे रहा है.....और फिर जब यह आतंक का वटवृक्ष घना हो जाता है तो खुद भी डरता है और औरों को भी डरता है...जब तक फिलस्तीन समस्या का समाधान नहीं हो जाता...और इस्राईल के पर नहीं काटे जाते ....इस दुनिया में और भी कई ओसामा पैदा होते रहेंगे...!!
पाक का सफाया ही इलाज़ है
पाकिस्तान को ख़तरा है उनसे जो पाकिस्तान मैं बैठ कर "9/11", कारगिल, "26 /11" की योजना करते हैं और उन पाकिस्तानियों से जो उनको सहयोग करते हैं.पाकिस्तान अपने कुछ लोगों के किए काम का हिसाब अपने बेगुनाह जनता के खून से अभी कुछ और समय तक चुकाता रहेगा. प्रकृति का नियम बहुत निराला है - जैसा करोगे वैसा ही भरोगे.
पाकिस्तान ही सभी आतंकियों का पनाहगार है .
अब पाकिस्तान का अंत निश्चित है
आतंक के मूल को ही समाप्त करना होगा
पाकिस्तान आंतकवाद का गढ़ है इसलिए ये भारत के लिए बेहतर होगा कि वह पाकिस्तान से दूर रहे.अगर ये दोनों देश रिश्ते बेहतर करने की कोशिश करे तब भी कुछ नहीं होगा.भारत एशिया के दूसरे देशों के कही आगे है और मुझे भारतीय होने पर नाज़ है.
वास्तव में ख़तरे का कारण तो पाकिस्तानी फौजियों से है.यही लोग कट्टर सोच रखने वालों को बढ़ावा देते है.
good blog ....
thanks
ये कभी भी नहीं सुधरेंगे जिनको बचपन में ही लड़ाई और हथियार दिए जाये और गेर मुस्लिमो की हत्या के बदले स्वर्ग में ७२ लडकियों के साथ मोज करने का पाठ पड़ाया जाय वो .............
सच कहा आपने ये तो अभी मध्यांतर है ......... पूरा पाकिस्तान का सफाई के बगैर आतंक नहीं मिट सकता
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