ठीक उसके उलट, जब सुर सधे नहीं, सजे नहीं, तो वही हो जाता है असुर या बेसुर। ध्वनियां तो यहां भी हैं। लेकिन यहां उनका व्याकरण मौजूद नहीं है। व्याकरण, यानी कि नियम, एक अनुशासन, एक व्यवस्था। यदि ऐसा नहीं हो तो वे ध्वनियां महज एक शोर हैं। उस ध्वनि से कान तो गूंजेंगे, लेकिन दिल और दिमाग तक कुछ पहुंचेगा नहीं। ध्वनि है, लेकिन यदि उसके अर्थ नहीं हैं, तो यह दिल-ओ-दिमाग के काम की चीज नहीं है। थोड़ी ही देर में ऊब होने लगेगी इससे।
यही है मतलब सुर और असुर का। प्रकृति ने हमारे अंदर मूल रूप से नौ स्थायी भाव डाल रखे हैं -प्रेम, करुणा, हास्य, क्रोध, वीर, वीभत्स, रौद्र तथा शांत आदि। ये हमारे मूल भाव हैं, जिन्हें साहित्य में 'रस' कहा जाता है। हमारा कमाल इस बात में है कि हम कैसे इन नौ रसों में तालमेल बिठाते हैं। जितना अच्छा तालमेल, जितना अच्छा सामंजस्य, उतना ही हमारे अंतर्जगत का संतुलन। और जितना अच्छा होगा हमारे अंतर्जगत का संतुलन, उतने ही अधिक हम सुरत्व के, देवत्व के नजदीक होंगे।
हम सभी अपने-अपने अंतर्मन में अपनी-अपनी वीणा लिए हुए हैं। इस वीणा के यही नौ तार हैं। कब कौन से तार को झंकृत करना है और वह भी कितने दबाव के साथ और कितने समय के लिए, यही तो संगीतकार की उंगलियों की जादूगरी होती है। एक आम आदमी के लिए वीणा कुछ खास नहीं है। वह उत्सुकतावश उसकी तारों पर उगलियां फेरकर कुछ ऐसी ध्वनि-तरंगें पैदा करेगा, जिनका कोई मतलब नहीं होगा। लेकिन क्या कोई संगीतकार भी ऐसा करेगा?
उस ने घंटों-घंटों रियाज करके इस कला को हासिल किया है। उसने इसके लिए साधना की है। सुरों को साधा है। इसीलिए इसके सुर सध गए हैं। जिसके सुर सध गए हों, उसे यह चिंता करने की जरूरत नहीं रहती कि 'क्या गाऊं मैं।' वह तो यह भी नहीं पूछता कि मैं गाऊं या न गाऊं। इसके तो बस जी में आना चाहिए कि 'गाना है' कि बस गाने लगेगा। बल्कि वह जो कुछ कहेगा, वही एक गीत और संगीत बन जाएगा, क्योंकि अंदर के नौ तारों पर उसका कमांड जो हो गया है। इसलिए वह जो कुछ करेगा, वह सुरमय होगा। क्या देवत्व इसके अतिरिक्त भी कुछ है?
हमारा आंतरिक असंतुलन हमें कहीं का नहीं रहने देता। संतुलन गड़बड़ाया नहीं कि हमने अपना विवेक खो दिया। जब हमारा विवेक खो गया , जब हमारा विवेक ही हमारे साथ नहीं रहा , हमारे हाथ नहीं रहा , तो फिर एक दानव और हममें फर्क ही क्या रह जाएगा , क्योंकि देव और दानव में जो मूल फर्क है , वह निर्णय लेने का ही तो फर्क है। देव के निर्णय सभी के कल्याण से जुड़े होते हैं , जबकि दानव के निर्णय सभी के विनाश से , मात्र स्वयं के कल्याण से। जब इसका निर्धारण करने वाला तत्व विवेक ही गायब हो गया , तो फिर पास में बचा ही क्या ? तो जाहिर है कि जिसका सुर खो गया , वह असुर हो गया।
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29 comments:
अजय जी!
क्योंकि देव और दानव में जो मूल फर्क है , वह निर्णय लेने का ही तो फर्क है।
बहुत ही स्पष्ट विचार है
इतनी सुन्दर कृति के लिए साधुवाद
सुर साधने के लिए तारो का सही सामंजस्य होनी चाहिए
क्योंकि देव और दानव में जो मूल फर्क है , वह निर्णय लेने का ही तो फर्क है। देव के निर्णय सभी के कल्याण से जुड़े होते हैं , जबकि दानव के निर्णय सभी के विनाश से , मात्र स्वयं के कल्याण से।
गहरे विचार है
फालो करने के लिए धन्यवाद
दीपक जी आपको भी यहाँ पधारने के लिए धन्यवाद
आभार
उस ने घंटों-घंटों रियाज करके इस कला को हासिल किया है। उसने इसके लिए साधना की है। सुरों को साधा है। इसीलिए इसके सुर सध गए हैं।
सुन्दर प्रस्तुति
जनाब इतने बड़े बड़े काम कोई आखिर करे भी तो कैसे आज के समय में इसमे तालमेल बिठाना काफी मुश्किल भरा काम है
विचार अछे है
सुर साधने के लिए तालमेल तो बिठाना ही होगा ...
उदाहरण सटीक रक्खा है आपने
धन्यबाद
संगीत को साधना से हशील किया जाता है .....और ईश्वर भी बिना साधना के नहीं मिल सकते
प्रकृति ने हमारे अंदर मूल रूप से नौ स्थायी भाव डाल रखे हैं -प्रेम, करुणा, हास्य, क्रोध, वीर, वीभत्स, रौद्र तथा शांत आदि।
अजय जी आपने आठ रस को ही लिखा है नौवा रस क्या है ?
सही कहा आपने आपने को बेहतर करने की कुंजी इंसान के आपने पास ही है जरूरत है उसे सही तरीके से (नियम,अनुशासन )से उपयोग करने की
बेहतरीन लेख ...
शुक्रिया
अजय जी आप आज शाम ३-४ बजे तक ऑनलाइन आइये तो बात करते है
आज ही आपके ब्लॉग पे आना हुआ ..बहुत ही तर्कसंगत बात लिखी है आपने
सार्थक रचना
थैंक यू वैरी मच
एक और शानदार लेख
हमारा कमाल इस बात में है कि हम कैसे इन नौ रसों में तालमेल बिठाते हैं। जितना अच्छा तालमेल, जितना अच्छा सामंजस्य, उतना ही हमारे अंतर्जगत का संतुलन। और जितना अच्छा होगा हमारे अंतर्जगत का संतुलन, उतने ही अधिक हम सुरत्व के, देवत्व के नजदीक होंगे।
कोटिशः धन्यबाद
पार्थ जी आपको बहुत बहुत धन्यबाद
प्रीती जी सच कहू तो मुझे नौवा रस का नाम नहीं याद आ रहा था तभी तो मैंने आदि लिख दिया था अंत में
गंभीर विश्लेषण के लिए धन्यबाद
priti ji nauwa ras shringar ras hai
हा श्रृंगार रस है जो छुट गया था
धन्यबाद अनिल जी
संगीत के संदर्भ आपने बहुत समझदारी से भरी बातें लिखी हैं. शास्त्रीय दृष्टि से विषय की विवेचना अच्छी बन पड़ी है. आभार.
सुन्दर आलेख|उर्वर चिंतन एवं क्षमताशील लेखन|बधाई एवं शुभकामनायें|
- अरुण मिश्र.
क्योंकि देव और दानव में जो मूल फर्क है , वह निर्णय लेने का ही तो फर्क है। देव के निर्णय सभी के कल्याण से जुड़े होते हैं , जबकि दानव के निर्णय सभी के विनाश से , मात्र स्वयं के कल्याण से
अरुण जी , पूराविया
आप लोगों को भी धन्यबाद
संगीत के खास अर्थ बताये आपने
धन्यबाद
बहुत सुन्दर उदाहरण से कहा है आपने आपनी बात
थंक्स
उस ने घंटों-घंटों रियाज करके इस कला को हासिल किया है। उसने इसके लिए साधना की है। सुरों को साधा है। इसीलिए इसके सुर सध गए हैं।
good
सुर की साधना ही तो सब कुछ है बंधु ! ध्रुपद गायन ईश्वर तक ले जाता है हमें. सुर-असुर की सुन्दर विवेचना की है आपने पंडित जी महाराज ! उत्कृष्ट चिंतन.....
धन्यबाद कौशलेन्द्र जी
यहाँ पधारने के लिए आपका आभार
हांजी श्रृंगार - रस ही छुटा था
धन्यबाद
सुखद
क्योंकि देव और दानव में जो मूल फर्क है , वह निर्णय लेने का ही तो फर्क है।
स से सुर स से संगीत और स से साधना अनोखा मिश्रण है
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