भगवत् कृपा हि केवलम् !

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Tuesday, 11 January 2011

अगर सुर साध लें ....

सुर -असुर यानी कि देव और दानव। जिसने भी इस शब्द युग्म को पहली बार पहचाना होगा, वह जरूर एक सिद्ध संगीतकार और आध्यात्मिक अनुभव वाला मनोवैज्ञानिक रहा होगा। फिल्म 'बैजू बावरा' की एक लाइन है, 'सुर ना सजे क्या गाऊं मैं।' जब सुर नहीं सधते, तो गाना नहीं हो पाता। सुर यानी कि ध्वनियों का सुंदरतम तालमेल, इतना सुंदर संतुलन कि वे संगीत में बदल जाएं। इतना दमखम पैदा हो जाए कि गाने वाला तो क्या, सुनने वाले भी खो जाएं उन स्वर लहरियों में। और कोई ताज्जुब नहीं कि आप उनके जरिये इश्वर तक पहुंच जाएं।

ठीक उसके उलट, जब सुर सधे नहीं, सजे नहीं, तो वही हो जाता है असुर या बेसुर। ध्वनियां तो यहां भी हैं। लेकिन यहां उनका व्याकरण मौजूद नहीं है। व्याकरण, यानी कि नियम, एक अनुशासन, एक व्यवस्था। यदि ऐसा नहीं हो तो वे ध्वनियां महज एक शोर हैं। उस ध्वनि से कान तो गूंजेंगे, लेकिन दिल और दिमाग तक कुछ पहुंचेगा नहीं। ध्वनि है, लेकिन यदि उसके अर्थ नहीं हैं, तो यह दिल-ओ-दिमाग के काम की चीज नहीं है। थोड़ी ही देर में ऊब होने लगेगी इससे।

यही है मतलब सुर और असुर का। प्रकृति ने हमारे अंदर मूल रूप से नौ स्थायी भाव डाल रखे हैं -प्रेम, करुणा, हास्य, क्रोध, वीर, वीभत्स, रौद्र तथा शांत आदि। ये हमारे मूल भाव हैं, जिन्हें साहित्य में 'रस' कहा जाता है। हमारा कमाल इस बात में है कि हम कैसे इन नौ रसों में तालमेल बिठाते हैं। जितना अच्छा तालमेल, जितना अच्छा सामंजस्य, उतना ही हमारे अंतर्जगत का संतुलन। और जितना अच्छा होगा हमारे अंतर्जगत का संतुलन, उतने ही अधिक हम सुरत्व के, देवत्व के नजदीक होंगे।

हम सभी अपने-अपने अंतर्मन में अपनी-अपनी वीणा लिए हुए हैं। इस वीणा के यही नौ तार हैं। कब कौन से तार को झंकृत करना है और वह भी कितने दबाव के साथ और कितने समय के लिए, यही तो संगीतकार की उंगलियों की जादूगरी होती है। एक आम आदमी के लिए वीणा कुछ खास नहीं है। वह उत्सुकतावश उसकी तारों पर उगलियां फेरकर कुछ ऐसी ध्वनि-तरंगें पैदा करेगा, जिनका कोई मतलब नहीं होगा। लेकिन क्या कोई संगीतकार भी ऐसा करेगा?

उस ने घंटों-घंटों रियाज करके इस कला को हासिल किया है। उसने इसके लिए साधना की है। सुरों को साधा है। इसीलिए इसके सुर सध गए हैं। जिसके सुर सध गए हों, उसे यह चिंता करने की जरूरत नहीं रहती कि 'क्या गाऊं मैं।' वह तो यह भी नहीं पूछता कि मैं गाऊं या न गाऊं। इसके तो बस जी में आना चाहिए कि 'गाना है' कि बस गाने लगेगा। बल्कि वह जो कुछ कहेगा, वही एक गीत और संगीत बन जाएगा, क्योंकि अंदर के नौ तारों पर उसका कमांड जो हो गया है। इसलिए वह जो कुछ करेगा, वह सुरमय होगा। क्या देवत्व इसके अतिरिक्त भी कुछ है?

हमारा आंतरिक असंतुलन हमें कहीं का नहीं रहने देता। संतुलन गड़बड़ाया नहीं कि हमने अपना विवेक खो दिया। जब हमारा विवेक खो गया , जब हमारा विवेक ही हमारे साथ नहीं रहा , हमारे हाथ नहीं रहा , तो फिर एक दानव और हममें फर्क ही क्या रह जाएगा , क्योंकि देव और दानव में जो मूल फर्क है , वह निर्णय लेने का ही तो फर्क है। देव के निर्णय सभी के कल्याण से जुड़े होते हैं , जबकि दानव के निर्णय सभी के विनाश से , मात्र स्वयं के कल्याण से। जब इसका निर्धारण करने वाला तत्व विवेक ही गायब हो गया , तो फिर पास में बचा ही क्या ? तो जाहिर है कि जिसका सुर खो गया , वह असुर हो गया। 

आपके क्या विचार है ? आपके विचार आमंत्रित है

29 comments:

संतोष शर्मा said...

अजय जी!

क्योंकि देव और दानव में जो मूल फर्क है , वह निर्णय लेने का ही तो फर्क है।

बहुत ही स्पष्ट विचार है
इतनी सुन्दर कृति के लिए साधुवाद

Anonymous said...

सुर साधने के लिए तारो का सही सामंजस्य होनी चाहिए

Deepak Saini said...

क्योंकि देव और दानव में जो मूल फर्क है , वह निर्णय लेने का ही तो फर्क है। देव के निर्णय सभी के कल्याण से जुड़े होते हैं , जबकि दानव के निर्णय सभी के विनाश से , मात्र स्वयं के कल्याण से।

गहरे विचार है
फालो करने के लिए धन्यवाद

अजय कुमार दूबे said...

दीपक जी आपको भी यहाँ पधारने के लिए धन्यवाद

आभार

Unknown said...

उस ने घंटों-घंटों रियाज करके इस कला को हासिल किया है। उसने इसके लिए साधना की है। सुरों को साधा है। इसीलिए इसके सुर सध गए हैं।

सुन्दर प्रस्तुति

Anonymous said...

जनाब इतने बड़े बड़े काम कोई आखिर करे भी तो कैसे आज के समय में इसमे तालमेल बिठाना काफी मुश्किल भरा काम है
विचार अछे है

Unknown said...

सुर साधने के लिए तालमेल तो बिठाना ही होगा ...

उदाहरण सटीक रक्खा है आपने
धन्यबाद

अजय कुमार दूबे said...

संगीत को साधना से हशील किया जाता है .....और ईश्वर भी बिना साधना के नहीं मिल सकते

प्रीती मिश्रा said...

प्रकृति ने हमारे अंदर मूल रूप से नौ स्थायी भाव डाल रखे हैं -प्रेम, करुणा, हास्य, क्रोध, वीर, वीभत्स, रौद्र तथा शांत आदि।

अजय जी आपने आठ रस को ही लिखा है नौवा रस क्या है ?

सही कहा आपने आपने को बेहतर करने की कुंजी इंसान के आपने पास ही है जरूरत है उसे सही तरीके से (नियम,अनुशासन )से उपयोग करने की
बेहतरीन लेख ...
शुक्रिया

संतोष शर्मा said...

अजय जी आप आज शाम ३-४ बजे तक ऑनलाइन आइये तो बात करते है

पार्थ रावत said...
This comment has been removed by the author.
पार्थ रावत said...

आज ही आपके ब्लॉग पे आना हुआ ..बहुत ही तर्कसंगत बात लिखी है आपने

सार्थक रचना
थैंक यू वैरी मच

सपना सिंह said...

एक और शानदार लेख


हमारा कमाल इस बात में है कि हम कैसे इन नौ रसों में तालमेल बिठाते हैं। जितना अच्छा तालमेल, जितना अच्छा सामंजस्य, उतना ही हमारे अंतर्जगत का संतुलन। और जितना अच्छा होगा हमारे अंतर्जगत का संतुलन, उतने ही अधिक हम सुरत्व के, देवत्व के नजदीक होंगे।

कोटिशः धन्यबाद

अजय कुमार दूबे said...

पार्थ जी आपको बहुत बहुत धन्यबाद

प्रीती जी सच कहू तो मुझे नौवा रस का नाम नहीं याद आ रहा था तभी तो मैंने आदि लिख दिया था अंत में

गंभीर विश्लेषण के लिए धन्यबाद

anil kumar misra said...

priti ji nauwa ras shringar ras hai

अजय कुमार दूबे said...

हा श्रृंगार रस है जो छुट गया था

धन्यबाद अनिल जी

Bharat Bhushan said...

संगीत के संदर्भ आपने बहुत समझदारी से भरी बातें लिखी हैं. शास्त्रीय दृष्टि से विषय की विवेचना अच्छी बन पड़ी है. आभार.

ARUN MISHRA said...

सुन्दर आलेख|उर्वर चिंतन एवं क्षमताशील लेखन|बधाई एवं शुभकामनायें|
- अरुण मिश्र.

Unknown said...

क्योंकि देव और दानव में जो मूल फर्क है , वह निर्णय लेने का ही तो फर्क है। देव के निर्णय सभी के कल्याण से जुड़े होते हैं , जबकि दानव के निर्णय सभी के विनाश से , मात्र स्वयं के कल्याण से

अजय कुमार दूबे said...

अरुण जी , पूराविया

आप लोगों को भी धन्यबाद

Unknown said...

संगीत के खास अर्थ बताये आपने

धन्यबाद

Anonymous said...

बहुत सुन्दर उदाहरण से कहा है आपने आपनी बात

थंक्स

Narendra said...

उस ने घंटों-घंटों रियाज करके इस कला को हासिल किया है। उसने इसके लिए साधना की है। सुरों को साधा है। इसीलिए इसके सुर सध गए हैं।
good

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

सुर की साधना ही तो सब कुछ है बंधु ! ध्रुपद गायन ईश्वर तक ले जाता है हमें. सुर-असुर की सुन्दर विवेचना की है आपने पंडित जी महाराज ! उत्कृष्ट चिंतन.....

अजय कुमार दूबे said...

धन्यबाद कौशलेन्द्र जी
यहाँ पधारने के लिए आपका आभार

प्रीती मिश्रा said...

हांजी श्रृंगार - रस ही छुटा था

धन्यबाद

Unknown said...

सुखद

Anonymous said...

क्योंकि देव और दानव में जो मूल फर्क है , वह निर्णय लेने का ही तो फर्क है।

Talash said...

स से सुर स से संगीत और स से साधना अनोखा मिश्रण है