भगवत् कृपा हि केवलम् !

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Saturday 19 May 2012

माँ को सुपर मॉम ....पर्फेक्ट मॉम....बनाने की कवादत.......??

हम लोगो ने हर दिन माँ को समर्पित करने वाले इस देश में "मदर्स डे " मनाना शुरू किया है बात फिर भी ठीक है पर आज कल की मिडिया , टीवी चैनलों और अपने आप को  ज्यादा आधुनिक समझने वाले लोगो ने कौन है परफेक्ट मॉम.... सुपर मॉम कोंटेक्सट... सरीखे प्रोग्राम बनाकर माँ के साथ क्या कर रहे है ?...उनका कैसा चित्रण कर रहे है ?....वो बताना क्या चाहते है....? दिखाना क्या चाहते है ...? लेकिन यह सुपर मॉम, पर्फेक्ट मॉम.. सरीखा फैशनेबल शब्द औरतों को कैसे नए तरह से गुलाम बना रहा है, ये वही समझ रही हैं।  

वह घर में होती है तो दफ्तर के छूटे हुए काम याद आते हैं। दफ्तर जाती है तो याद आता है कि बच्चे का होमवर्क ठीक से नहीं करा पाई। घर पहुंचते ही उसकी बाट जोहती वॉशिंग मशीन उम्मीद करती है कि स्विच ऑन किया जाए, बर्तनों से भरा सिंक और बिखरा पड़ा किचन दिन भर का उलाहना देता है और बच्चे-बूढ़े शाम के नाश्ते की फ़रमाइश करते मिलते हैं....। कहां से शुरू करे....।

हालत यह होती है कि नींद में भी वह कई बार जागती है और उसे काम के ही सपने आते हैं। एक समय के बाद तनाव, सिरदर्द, थकान इस सुपर मॉम की स्थायी समस्या हो जाती है। यह स्थिति बताती है कि वह अब सुपर मॉम सिंड्रोम से पूरी तरह ग्रस्त हो चुकी है। दबाव, तनाव, बेचैनी, अनिद्रा, अवसाद, निराशा, अकेलापन....ये कुछ लक्षण हैं इस सिंड्रोम के।

लेकिन क्या ये परेशानियां स्त्रियों के लिए संकेत हैं कि उन्हें बाहर नहीं निकलना चाहिए?, घर की जिम्मेदारियों को अच्छी तरह निभाना चाहिए? यह तो फिर से वापस लौटने की तरह होगा। आत्मनिर्भरता की जिस लड़ाई में ये इतना आगे तक बढ़ चुकी हैं क्या उन्हें फिर से पीछे जाना होगा? माना कि उन पर कई तरह के दबाव हैं, वे एक संक्रमण-काल से गुजर रही हैं, लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वे बाहर नहीं निकलना चाहतीं। उन्हें सिर्फ घर और कार्यस्थल का माहौल अपने अनुकूल चाहिए, जो अभी संभव नहीं हो पा रहा है। समस्या की जड़ यही है।

परिवारों का ढांचा परंपरागत है और बाहरी दुनिया में अभी उनकी कामकाजी छवि को लोग मन से स्वीकार नहीं पा रहे हैं। ख़ुद स्त्रियों को भी मानना होगा कि वे हर जगह पर्फेक्ट नहीं हो सकतीं। अगर बच्चों को मनचाहा समय नहीं दे पा रही हैं तो इसमें ग्लानि क्यों? जितना भी समय दे रही हैं-उसे भरपूर देने की कोशिश तो कर रही हैं। पर्फेक्ट कुक नहीं हैं तो क्यों अपने हाथों को लानत भेजें, दफ्तर में तो कुछ अच्छे प्रोजेक्ट्स तैयार कर रही हैं।

इस सिंड्रोम से बचने का एक ही रास्ता है-थोड़ा सा समय। यह थोड़ा सा समय जिसमें स्त्री ख़ुद के लिए कुछ करे। ख़ुद को अच्छा लगने के लिए कुछ करे। डांस करे, गुनगुनाए, एक्सर्साइज़ करे, वॉक करे, पेंटिंग करे....। हर काम के लिए समय निकाल रहे हैं तो थोड़े से पल अपने लिए निकालने में कंजूसी या अपराधबोध क्यों हो?

सबसे बड़ी चीज है प्राथमिकता तय करना, बच्चे छोटे हैं तो घर के कोने-कोने की सफाई से ज्यादा जरूरी है बच्चों को समय देना। स्वास्थ्य खराब है तो भी दूसरों की सेवा-टहल करते रहने के बजाय खुद को डॉक्टर को दिखाना ज्यादा जरूरी होना चाहिए। बच्चे को हर सुविधा देना क्यों जरूरी है? उनके खराब मार्क्स आने या घरेलू अव्यवस्थाओं के लिए वे खुद को ही दोषी क्यों समझें? किसी भी स्त्री के लिए यह याद रखना जरूरी है कि वह पत्नी, बहू या मां होने से पहले एक इंसान हैं और उसे भी एक इंसान की तरह जीने का हक भी है। खुद को मशीन न मानें। खुद को दूसरे की नजर में अच्छा बनाने से पहले अपनी नजर में अच्छी बनें। हर काम में पर्फेक्ट होना इतना भी जरूरी नहीं कि उसके लिए जिंदगी दांव पर लगा दी जाए।
ये सारे काम किए जा सकते हैं लेकिन ये सारे काम एक साथ नहीं किए जा सकते। स्त्री किसी परिवार का दिल है और इस दिल को हमेशा धड़कते रहने के लिए उसका सिर्फ मां होना काफी है, उसे सुपर मॉम या पर्फेक्ट मॉम बनने की कोशिश करने की जरूरत नहीं। 

आप क्या कहते है ?? आपके विचार आमंत्रित है -- अजय