भगवत् कृपा हि केवलम् !

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Wednesday 20 April 2011

अन्ना भाऊ सजगता और दृढ़ता से लड़ना ..... ..... वरना आप से भी जबाब मांगेगी जनता !!

"अगर अन्ना ने लंबी लड़ाई का मन बना लिया है, तो उन्हें विनोबा की तरह देश के कोने-कोने में अलख जगाने के लिए निकलना होगा। उन्हें जयप्रकाश नारायण की तरह युवकों के खून में उबाल लाना होगा। साथ ही युवा शक्ति को सिर्फ उद्वेलित कर देना पर्याप्त नहीं है, उसे तार्किक परिणति तक भी ले जाना होगा।"

मित्रो जन लोकपाल की स्थापना को भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन की जीत मानना भोलापन होगा। सवा अरब की जनसंख्या वाला यह देश इस किस्म का भोलापन दिखाने का जोखिम मोल नहीं ले सकता। अन्ना ने आंदोलन के अगले चरण की घोषणा भी कर दी है, जो चुनाव सुधारों पर आधारित होगा। छह महीने के भीतर जन लोकपाल विधेयक संसद में पास हो जाए और इस संस्था की स्थापना हो जाए, क्या इतना भर काफी है? जन लोकपाल विधेयक का परिणाम यह होना चाहिए कि सर्वोच्च स्तर पर की जाने वाली स्पष्ट कार्रवाइयों का प्रभाव निचले स्तर तक जाए। इस बात पर ध्यान रखे जाने की जरूरत है कि एक बहुत बड़े मसले को छोटे स्तर पर तो नहीं देखा जा रहा। जोखिम यह भी है कि कहीं जन लोकपाल की स्थापना के बाद देश में यह संदेश न जाए कि अब भ्रष्टाचार का मामला तो हल हो चुका है। सरकार ने तो हथियार डालकर गांधीवादी तरीके से चुनौती का सामना कर लिया है। अब चुनौती अन्ना और उनके साथियों (अर्थात हम सभी ) के सामने है। 
प्रभावी जन लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार होना और जन लोकपाल का निष्पक्ष, निर्भय, परिणामोन्मुख,  और असरदार होना जरूरी होगा। छह दशक में भ्रष्टाचार ने खुद को हमारे भीतर जितनी गहराई तक समा दिया है, उसका उन्मूलन करने के लिए दशक भी कम पड़ेगा। जब तक आम आदमी भ्रष्टाचार के विरुद्ध नारे लगाने तक सीमित रहेगा, यह समस्या दूर नहीं होने वाली। जब वह भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध प्रो-एक्टिव होना शुरू करेगा, तब थोड़ी उम्मीद जगेगी। 

जब हम अपने घर, पड़ोस, दफ्तर में भ्रष्टाचारी को बर्दाश्त करना बंद करेंगे और मौके पर न्याय करना शुरू करेंगे तब एक-एक कर भ्रष्टाचारी कम होंगे। जब देश का हर नागरिक आसपास किसी को रिश्वत लेते या देते देखते ही प्रतिक्रिया करना शुरू करेगा और बाकी लोग तुरंत उसके साथ खड़े होंगे, तब इस कैंसर के विरुद्ध असली क्रांति शुरू होगी। व्यवस्थाओं और प्रावधानों के भरोसे आनन-फानन में भ्रष्टाचार का समूल नाश करने की खुशफहमी छोड़ देनी चाहिए। अन्ना जैसे लोग देश में वह माहौल लाने की पहल कर सकते हैं, लेकिन यह कोई छोटी या समयबद्ध प्रक्रिया सिद्ध नहीं होने जा रही। यह अपने ही खिलाफ लड़ी जाने वाली एक कठिन और लंबी लड़ाई है, जिसे जीतने के लिए एक समग्र सामाजिक क्रांति की जरूरत है। अन्ना और दूसरे लोगों को फिलहाल बैठने या चुनाव सुधारों पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत नहीं है। उन्हें पहले भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को उसकी परिणति तक पहुंचाना होगा। यूं तो देश में मुद्दों की कोई कमी नहीं है, लेकिन अगर एक बड़ी जंग शुरू की गई है, तो पहले उसे पूरा करना जरूरी है। अगर अन्ना ने लंबी लड़ाई का मन बना लिया है, तो उन्हें विनोबा की तरह देश के कोने-कोने में अलख जगाने के लिए निकलना होगा। उन्हें जयप्रकाश नारायण की तरह युवकों के खून में उबाल लाना होगा। युवा शक्ति को सिर्फ उद्वेलित कर देना पर्याप्त नहीं है, उसे तार्किक परिणति तक भी ले जाना होगा।
लोग मांगें समाधान ................... 
 
अचानक उम्मीदों से लबरेज यह देश, अन्ना और उनके साथियों से समाधान मांग रहा है। उनके पास भ्रष्टाचार की व्यापक समस्या के समाधान का विस्तृत, व्यावहारिक ब्लू-प्रिंट होना चाहिए। एक राष्ट्रव्यापी ब्लू-प्रिंट। लड़ाई जितने बड़े स्तर पर लड़ी जानी है, उसकी तैयारी भी उतने ही बड़े स्तर पर करने की जरूरत है। वह तैयारी सैद्धांतिक, राजनैतिक और व्यावहारिक स्तर पर भी होनी चाहिए। इसके लिए बहुत-सी चीजें राजनेताओं से भी सीखने की भी जरूरत है। इतनी बड़ी जीत मिली है, तो इसके सभी परिणाम सकारात्मक नहीं होने वाले। अन्ना को नकारात्मक पहलुओं का सामना करने के लिए भी तैयार रहना होगा। यहीं पर राजनेता हम जैसे आम लोगों पर भारी पड़ जाते हैं। वे आसानी से प्रतिक्रि या नहीं करते, जबकि अन्ना तुरंत प्रतिक्रियाएं करके विरोधी शक्तियों को दुष्प्रचार का मौका दे रहे हैं। मौजूदा जीत में संयम बनाए रखना बहुत जरूरी है। अति-उत्साह और उग्रता, स्थिति को जटिल ही बनाएगी। आंदोलन समाप्त होने के बाद लगभग रोज ही किसी न किसी बयान से अन्ना लोगों का ध्यान खींच रहे हैं। उन्होंने राजनेताओं पर हमला किया है जिसका जवाब कांग्रेस और भाजपा दोनों ने एकजुटता के साथ दिया। छह दशकों पुराने इस लोकतंत्र में राजनीति एक सच्चाई है। 

अगर सुधारों की कोई भी प्रक्रिया सफल होनी है, तो वह राजनीति तथा राजनेताओं को पूरी तरह अलग करते हुए नहीं बल्कि उन्हें साथ लेकर ही संभव हो सकता है। खैर अब तो समिति भी गठित हो गया है और कई राजनैतिक दलों ने समिति के गठन के तौर-तरीके और उसके स्वरूप पर सवाल उठाने भी शुरू कर दिए हैं। ऐसे में बहुत ही सजगता और दृढ़ता से आगे बढ़ना होगा 

आप क्या सोचते है ? जरूर बताइए - अजय दूबे

Tuesday 5 April 2011

निराशा के दौर में खुशी के क्षण ..... !!

२ अप्रैल की रात हमारे खिलाडियों द्वारा प्राप्त ऐतिहासिक विजय ४ अप्रैल से शुरू हुए हिन्दू नव संवत्सर का शानदार तोहफा बन गया है, जिसने नव वर्ष का नव हर्ष और नव उमंग के साथ आगाज कर दिया है

आखिर 28 सालों के बाद हमारा सपना साकार हुआ है। विजय के इस समय का रोमांच कहीं भी महसूस किया जा सकता है। जरा 30 मार्च के पूर्व देश के सामूहिक मनोविज्ञान को याद करिए और 2 अप्रैल की अर्धरात्रि के माहौल से तुलना करिए। क्या दोनों के बीच कोई साम्य दिखता है? ऐसा लगेगा ही नहीं कि यह वही देश है जो 30 मार्च से पूर्व की गहरी हताशा, क्षोभ, उद्वेलन एव भविष्य को लेकर आशकाओं के गहरे दुश्चक्र में फंसा दिख रहा था। 30 मार्च को पाकिस्तान के साथ खेल में जैसे-जैसे विजय की स्थिति बनती गई, ऐसा लगने लगा मानो गहरी निराशा पर किसी मनोचिकित्सक का उपचार चमत्कार की तरह कारगर साबित हो रहा है। विश्व कप का फाइनल इसका चरमोत्कर्ष था। वीरेंद्र सहवाग एव सचिन तेंदुलकर के आउट होने के बाद गौतम गंभीर एव विराट कोहली के सतुलन ने क्रिकेट प्रेमियों का आत्मविश्वास वापस दिलाया और धोनी के अंतिम छक्के ने तो मानो सामूहिक रोमांच को पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया। तो क्या 50-50 ओवरों के क्रिकेट में ऐसा कोई जादू है जिसने देश के माहौल को ऐसा बना दिया है, जिसमें पूर्व की सारी निराशाएं एकबारगी ओझल हो चुकी हैं?
निश्चय ही इसके उत्तर पर देश में एक राय नहीं हो सकती। आखिर एक समय भद्रजनों का खेल माने जाना वाला क्रिकेट जिस प्रकार बाजार का अंग बनकर खेल की बजाय चकाचौंध और मादकता का आयोजन बनता गया है उसकी आलोचना इसके विवेकशील समर्थक व प्रेमी भी कर रहे हैं। स्वयं इस विश्व कप में जितने धन का वारा-न्यारा हुआ वह निश्चय ही चिंताजनक है। ऐसा साफ दिखता है कि इसमें से खेल भावना तथा खेल के जो सकारात्मक उद्देश्य थे वे गायब हो रहे हैं और बाजार तंत्र उसकी दिशा-दशा का निर्धारणकर्ता बन रहा है। बावजूद इसके यह तो स्वीकार करना होगा कि क्रिकेट हमारे देश में ऐसा खेल बन गया है जो शहरों से गांवों तक, उच्च वर्ग से लेकर निम्न वर्ग तक सभी को कुछ समय के लिए एक धरातल पर ला देता है। क्रिकेट के अलावा ऐसी कोई विधा या आयोजन नहीं दिखता जो कि देश में कुछ समय के लिए ही सही बड़े वर्ग की मनोदशा को एक स्थान पर लाता है। इस नजरिए से विचार करने वाले मानते हैं कि यदि योजनापूर्वक क्रिकेट का उपयोग हो तो देश के लिए यह वरदान भी साबित हो सकता है।

29 मार्च तक देश में लगातार उभर रहे एक से एक भ्रष्टाचार, फिर विकिलीक्स के नंगे खुलासे आदि को लेकर देश में जुगुप्सा का माहौल था। केंद्रीय राजनीति के दोनों प्रमुख समूहों के एक-दूसरे के खिलाफ मोर्चाबदी में पूरा देश विभाजित हो चुका था। सरकारी पक्ष अपनी निराशा में विपक्ष के विरुद्ध आए एकाध खुलासे पर उसे ही कठघरे में खड़ा करने की बेशर्म रणनीति अपना चुका था। इससे यकीनन माहौल मे ऐसी उमस पैदा हो रही थी जिससे निकलकर लोग ताजगी की तलाश कर रहे थे। पहले सेमीफाइनल में पाकिस्तान पर विजय और फिर 28 वर्ष बाद विश्व कप पर ऐतिहासिक कब्जे ने वह ताजगी उपलब्ध करा दी है। आज इन पर चर्चा कहीं नहीं हो रही। यहा तक कि क्रिकेट के बीच दूरसंचार  घोटाले के आरोप पत्र की खबर तक पर चर्चा करने की चाहत नजर नहीं आई। इस नाते देखा जाए तो महेंद्र सिह धोनी और उनकी टीम का एक महत्वूपर्ण राष्ट्रीय योगदान है। खेल के नजरिए से इसका विश्लेषण करने वाले श्रीलंका एवं भारत, दोनों की गेंदबाजी, क्षेत्ररक्षण एवं  बल्लेबाजी सहित संपूर्ण रणनीतियों का विश्लेशण कर रहे हैं और उनमें हम आप भी शामिल हैं। कई लोग 1996 विश्व कप के सेमीफाइनल में श्रीलंका के हाथों मिली करारी पराजय के आघात से उबरने की बात कर रहे हैं तो कुछ की दलील है कि इस बार फाइनल में एशिया की दो टीमों का पहुंचना क्रिकेट की दुनिया से पश्चिम के वर्चस्व का अंत है। इनके अनुसार यह केवल खेल नहीं पूरी दुनिया की तस्वीर में आने वाले बदलाव का सूचक हो सकता है। जरा पीछे लौटिए। 1983 में भारत ने कपिल देव के नेतृत्व में वेस्टइंडीज के एकाधिकार को धक्का दिया था और तब यह केवल क्रिकेट ही नहीं, प्रमुख देशों के राजनीतिक नेतृत्व के लिए भी अनपेक्षित था। सन 2003 में भारत फाइनल में पहुंचा, लेकिन ऑस्ट्रेलिया के वर्चस्व को तोड़ना सभव न हो सका। पिछले कुछ सालों में ऐसा लगता ही नहीं था कि ऑस्ट्रेलिया का वर्चस्व कोई देश तोड़ सकता है। इस बार तो ऑस्ट्रेलिया पर कोई दांव लगाने को तैयार नहीं था। भारत पर सबकी नजर थी।

क्या इसके पीछे कारण केवल क्रिकेट है या फिर पिछले कुछ सालों में विश्व परिदृश्य मे भारत के उद्भव को लेकर जो वातावरण बना है उसका भी हाथ है? स्वय पश्चिमी देश ही पिछले कुछ सालों से यह भविष्यवाणी कर रहे हैं कि भारत विश्व की भावी महाशक्ति होने की ओर अग्रसर है। भारत को चारों ओर जितना सम्मान मिल रहा है उसका मनोवैज्ञानिक असर यहा के खिलाड़ियों पर होना स्वाभाविक है। इस नाते विश्व के वर्तमान ढांचे के तहत भविष्यवाणी करने वाले समाजशास्त्री कह सकते हैं कि विश्व कप के फाइनल में दो एशियाई टीम का पहुंचना तथा भारत की विजय केवल एक विजय भर नहीं है, इससे एक दौर का अंत एव दूसरे दौर की शुरुआत हुई है। 1992 में पाकिस्तान की विजय एव 1996 में श्रीलका की विजय के समय विश्व का ऐसा परिदृश्य नहीं था। तब दो विचारधाराओं की राजनीति में वर्चस्व का शीतयुद्ध था। 1983 में विजय के समय पश्चिम के ज्यादातर संपन्न देशों के लिए भारत ऐसा देश भी नहीं था जिसकी विश्व परिदृश्य मे कोई अहमियत हो। 2011 इन मायनों मे कितना अलग है हम देख सकते हैं। केवल विश्व कप पर विजय का क्षणिक रोमांच से सपना साकार नहीं हो सकता। खेल की सीमाएं हैं। खिलाड़ियों ने अपना काम कर दिया है। अब देश को अपनी भूमिका निभानी है।

आप क्या सोचते है ?आपके विचार आमंत्रित है  - अजय दूबे